काशी राम कपड़ा व्यापारी थे। उनके पास धन-संपत्ति और घोड़े रखने के अस्तबल थे। वे बाबा को बहुत प्रेम करते और उन्हें हरी टोपी और कफनी सिलवाकर देते। जब बाबा ने महासमाधि ली तो एक पोटली में से यह हरी टोपी और कफनी मिली।
काशी राम धूनी माई के लिए लकड़ी देते। रोज़ सुबह आकर वे बाबा के चरणों में दो पैसे रखते। उस समय तक बाबा ने भक्तों से दक्षिणा लेना आरंभ नहीं किया था। काशीराम द्वारा प्रेम और भक्ति-भाव से दिए धन को बाबा स्वीकार करते। अगर किसी दिन बाबा उनके द्वारा दी धन राशि को स्वीकार नहीं करते, तो उस दिन काशीराम फूट-फूट कर रोते।
कुछ दिनों पश्चात् काशीराम अपनी दिन भर की कमाई लाकर बाबा के चरणों में अर्पित करने लगे। वे बाबा को इच्छानुसार धन उठाने के लिए कहते। धीरे-धीरे काशीराम के मन में अहंकार का बीज पनपने लगा। उसे लगने लगा कि वह ही साई बाबा की सभी जरूरतें पूरी कर रहा है। बाबा उसके मन के ‘भाव समझ गए। बाबा ने उसके सारे दिन की कमाई को अपने पास रखना शुरू कर दिया। उससे दक्षिण मैं अधिक धन माँगने लगे। काशीराम की आर्थिक तिथि बिगड़ गई। अंत में उन्हें बाबा को कहना पड़ा कि अब मेरे पास पैसे नहीं हाय! फिर भी परीक्षा पूरी नहीं हुई थी। बाबा ने उसे साहूकारों से उधार माँगकर दक्षिणा लाके देने पर मजबूर कर दिया। कुछ समय बाद साहूकारों ने भी रुपये देने से मना कर दिया। हार कर काशीराम को अपनी गलती का एहसास हुआ। वह पाया कि ब्रह्माण्ड के राजाधिराज श्री साई समर्थ को हम कुछ भी देने में समर्थ नहीं हैं। उसी क्षण से काशीराम की आर्थिक स्थिति में सुधार आरंभ होगया।
कपडे के व्यापार के सिलसिले में वे कपड़ों के थान बेचने के लिए आस-पास के गाँव में जाते। एक बार नाऊर (शिरडी से 22 मील दूर श्रीरामपुर के पास) बाजार से लौटते हुए इनका सामना डाकुओं से हुआ। डाकुओं ने पहले तो इनके पीछे आ रही बैलगाड़ियों को लूटा, फिर उनका ध्यान घोड़े पर बैठे काशीराम की ओर गया। काशीराम ने बिना घबराए, एक छोटी पोटली के अलावा अपना सब कुछ डाकुओं को दे दिया। डाकुओं को शक हुआ कि पोटली में अवश्य ही कोई कीमती वस्तु है जिसे काशीराम देना नहीं चाहते। वास्तव में उस पोटली में चीनी थी, जिसे काशीराम चींटियों को खिलाते थे। संत जानकीदास ने उन्हें प्रतिदिन चींटियों को चीनी खिलाने की सलाह दी थी। काशीराम के पोटली न देने पर डाकू भड़क गए। उन्होंने उन पर वार किया। काशीराम घायल हो गए। तभी उन्हें अपने समीप एक गिरी हुई तलवार नज़र आई। उन्होंने हिम्मत कर तलवार उठाई और दो डाकुओं को मार गिराया। तभी तीसरे डाकू ने काशीराम के सिर पर कुल्हाड़ी से वार किया। काशीराम लहू-लुहान हो ज़मीन पर गिर गए। डाकुओं ने उन्हें मृत समझ कर वहीं छोड़ दिया और आगे बढ़ गए। । कुछ समय बाद काशीराम होश में आए। उन्होंने आस-पास इकट्ठा हुए लोगों से उन्हें शिरडी पहुँचाने को कहा। उधर शिरडी में बाबा ने शामा को काशीराम का दवा-दारू करने का आदेश दिया। शामा ने गुरु की आज्ञा का पालन किया। कुछ दिनों में काशीराम स्वस्थ हो गए।
जब डाकुओं ने काशीराम पर हमला किया, उस समय द्वारकामाई में बाबा अचानक क्रोधित हो गए। वे गालियाँ देने लगे और सटके को हवा में घुमाने लगे। एसा करके वे डाकओं से काशीराम की रक्षा कर रहे थे। वास्तव में काशीराम पर कई हथियारबंद डाकओं ने हमला किया, जिस कारण उनका बच पाना कठिन था, परंतु बाबा की अदृश्य शक्ति ने उनकी रक्षा की और उनके प्राण बच गए। इनकी बहादरी के लिए महाराष्ट्र सरकार, मुंबई ने इन्हें तलवार भेंट देकर सम्मानित किया